हमारे देश में राजनीति हमेशा से ही जटिल रही है। चाहे बात आजादी से पहले की हो या फिर आजादी के बाद। हमेशा ही सुलझे हुए सवाल उलझ जाते हैं। लोगों को जिस फैसले की उम्मीद भी नहीं होती वही हो जाता है। आजादी से पहले की बात करें तो गरम दल और नरम दल की राजनीति अक्सर चर्चा का केंद्र रहती थी। सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का नेहरू, गांधी द्वारा सपोर्ट ना किए जाना भी जटिल राजनीति का हिस्सा था। मुस्लिम लीग और जिन्ना का पाकिस्तान की मांग करना। सरदार पटेल को ज्यादा वोट मिलने के बाद भी नेहरू का प्रधानमंत्री बन जाना। यह सभी मुद्दे ऐसे थे जो कि आजाद भारत के लिए जटिल राजनीति की नींव रख चुके थे।
फिर आजादी के बाद कश्मीर का मुद्दा! या कांग्रेस पार्टी के प्रभाव के कारण किसी और बड़ी पार्टी का उदय ना होना भी एक जटिल राजनीति का हिस्सा था। कई बार वोटर के पास विकल्प ही नहीं होता कि वह किसी दूसरी पार्टी के नेता को चुन सकें।
राज्यों की बात करें तो हमने लंबे समय तक बंगाल में वामपंथ की सरकार देखी है। ठीक इसी तरह 90 के दशक में लंबे समय तक बिहार में लालू यादव की सरकार। इतने समय में आप चाँद तक पहुंच जाएंगे। लेकिन इन दो राज्यों की सरकारों ने विकास के नाम पर जनता को बेवकूफ बनाया और सरकारी संपत्ति को लूटते रहे।
हालांकि जनता हमेशा बेवकूफ नहीं बनती। कभी-कभी समझदारी का परिचय भी देती है। जनता जब सरकार समझदार बनती है तो यूपी में सपा हटाओ बसपा लाओ और बसपा हटाओ सपा लाओ का उदाहरण प्रस्तुत करती है। ठीक इसी तरह राजस्थान में भी हर 5 साल में सत्ता परिवर्तन के लेन देन का ऑफर चलता रहता है। 5 साल कांग्रेस, 5 साल भाजपा और विकास धरातल में चला जाता है। इससे जटिल राजनीति और क्या होगी?
भारत में राजनीति तब और जटिल और समझ से परे लगने लगती है जब अलग विचारधारा के 2 लोग या पार्टियाँ सत्ता सुख के लिए एक हो जाती है। पिछले दशक में हमने कई ऐसे गठबंधन देखे हैं जो गठबंधन कम और ठगबंधन ज्यादा साबित हुए हैं। ऐसे ठगबंधन या तो चुनाव नहीं जीत पाते और अगर किसी तरह चुनाव जीत भी गए तो ठीक से सरकार नहीं चला पाते हैं। फिर नतीजा यह होता है कि सरकार गिर जाती है। इसके बाद की कहानी तो आपको पता है। फिर होता है चुनाव का खेल और जनता के टैक्स के पैसे की बर्बादी। हाल के वर्षो में हुए कुछ ठग बंधन :सपा-बसपा, सपा-कांग्रेस, लालू-नीतीश, शिवसेना- कांग्रेसी-एनसीपी।
अगर सीटों का बंटवारा ऐसा हो कि किसी भी पार्टी को बहुमत ना मिले, जनता के choice का पता ना चले, बार-बार चुनाव करवाने पड़े तो उस जगह का को झारखंड कहते हैं। 20 साल के अंतराल में झारखंड ने कई मुख्यमंत्री बदलते देखा। तीन बार तो राष्ट्रपति शासन लग चुका है। इससे जटिल राजनीति और क्या होगी।
धर्म, जातिवाद और free में सब कुछ देने का वादा यह सब चीजें भी राजनीति को जटिल बनाते हैं। कई बार तो वोटर के पास यह चॉइस होता है कि बुरा और कम बुरा में कौन से नेता को चुने? अच्छे नेता की तो बात ही छोड़ दीजिए।
तो ये थी भारतीय राजनीति की जटिलता के बारे में मेरी राय। आप क्या सोचते हैं? कमेंट करके जरूर बताएं। अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो शेयर जरूर करें।
धन्यवाद!
©नीतिश तिवारी।
नमस्ते! मेरा नाम नीतिश तिवारी है। मैं एक कवि और लेखक हूँ। मुझे नये लोगों से मिलना और संवाद करना अच्छा लगता है। मैं जानकारी एकत्रित करने और उसे साझा करने में यकीन रखता हूँ।