त्रेतायुग के रामायण को कलयुग का आदिपुरुष बनाने की भूल आख़िर क्यों की गई?

जबसे आदिपुरुष का टीजर आया था तभी से फ़िल्म नकारात्मक रूप से चर्चा में रही थी। हालाँकि उस समय फ़िल्म के घटिया VFX ही लोगों के गुस्सा का कारण था क्योंकि छोटे से टीजर में और कुछ देखने को था नहीं। लेकिन अब जब फ़िल्म सिनेमाघरों में दिखाई जाने लगी है तो VFX तो चर्चा का कारण है कि उसी के साथ फ़िल्म की कमजोर कहानी, घटिया सड़कछाप टपोरी वाले डॉयलॉग, पात्रों का चयन, वेशभूषा और बाकी सब कुछ जो फ़िल्म में होता है, सब के सब बेकार बताए जा रहे हैं। मतलब की ₹600 करोड़ की फ़िल्म का इतना बुरा रिव्यु आज से पहले शायद ही कभी किसी ने सुना होगा।

बात VFX से ही शुरू करेंगे। टीजर के बाद भारी विरोध के कारण फ़िल्म के मेकर्स ने कुछ महीनों का समय और लिया कि इसमें सुधार किया जाएगा। लेकिन सब कुछ जस का तस है। सोने की लंका की जगह कोयले की लंका दिखाई गई है। चमगादड़ से लेकर अजगर और ना जाने क्या क्या। अंधेरे में पूरी फिल्म शूट हुई है। लगता है स्टूडियो की लाइट चली गयी थी। जो लोग हॉलीवुड फिल्म देखते हैं उनका इतना तक कहना है कि कई सारे सीन्स हॉलीवुड के फिल्मों से कॉपी किये हुए हैं। मतलब पूरी फिल्म का बंटाधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है।

चलो एक बार को लोग फ़िल्म के vfx को इग्नोर भी कर दें लेकिन डायलॉग! हे भगवान कितने घटिया और स्तरहीन संवाद भगवान के मुँह से बुलवाए गए हैं। आप कुछ डायलॉग खुद ही पढिए:
तेरी बुआ का बगीचा नहीं है।
मरेगा बेटे।
जली न? और भी जलेगी! कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का, आग तेरे बाप का, जलेगी भी तेरे बाप की।
बोल दिया जो हमारी बहनों को हाथ लगाएँगे, हम उनकी लंका लगाएँगे।
चुपचाप अपना तमाशा समेट और निकल अपने बंदरों को ले कर! मेरे एक सपोले ने तेरे शेषनाग को लम्बा कर दिया।

अब आप खुद ही बताइये कि रामायण पर बनी फ़िल्म में ऐसे डायलॉग शोभा देते हैं। ऐसे संवाद लिखते समय मनोज मुंतशिर के हाथ क्यों नहीं कांपे? कलम की स्याही सूख जानी चाहिए थी, कागज फट जाने चाहिए थे। लेकिन ये सब नहीं हुआ। होगा भी क्यों जब आपको मोटा पैसा मिले तो आत्मा बेचने में आप देरी थोड़ी ना करते हैं। शायद लेखक महोदय के साथ भी ऐसा ही हुआ है।

पात्रों का चयन और उनकी एक्टिंग। बाहुबली और बाहुबली 2 की अपार सफलता के बाद प्रभास का डिमांड बहुत बढ़ गया। मैंने इंटरनेट पर पढ़ा कि 120 करोड़ की फीस दी गयी है। वो इसलिए कि प्रभास का एक्सप्रेशन अर्जुन कपूर और तुषार कपूर से भी बदत्तर रहे। सीता माता के रोल में कीर्ति पूरी तरह से सही नहीं है। कोई और एक्टर होती तो ज्यादा बढिया रहता। रावण के रोल में सैफ़ सही हैं लेकिन बेवजह के प्रयोग जैसे कि अजगर से मसाज करवाना, चमगादड़ पर बैठना, वेल्डिंग करना, इत्यादि ने पात्र के साथ न्याय नहीं किया है। मतलब रावण में लाख बुराइयाँ थी मगर कभी उसने वेल्डिंग का काम नहीं किया।

फ़िल्म के म्यूजिक को छोड़कर कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी प्रशंसा की जाए। यही कारण है कि फ़िल्म की चौतरफ़ा आलोचना हो रही है। क्या राइट विंग, क्या लेफ्ट विंग सब के सब यही कह रहे हैं कि एकदम बेकार फ़िल्म है। ऐसा लग रहा है कि टी-सीरीज ने पूरे देश के लोगों को यूनाइट करने के लिए 600 करोड़ खर्च किये हैं। भाई साहब जीवन और देश में बहुत कुछ है जो सकारात्मक है। ऐसी नाकारत्मक ऊर्जा वाली एकता किसी को नहीं चाहिए। भगवान राम और हनुमान जी का अपमान करके तो बिल्कुल भी नहीं।

अब बात करते हैं कि ऐसा हुआ क्यों? इतने वर्षों से चर्चित फिल्म का ये हाल क्यों हुआ? क्या डायरेक्टर से जानबूझकर ऐसी गलती हुई? या राइटर ने जान बूझकर ऐसे संवाद लिखे हैं। हम तो मान रहे थे कि अनजाने में ऐसी गलती हुई क्योंकि ओम राउत बहुत अनुभवी निर्देशक नहीं हैं। उनकी इससे पहले एक ही हिन्दी फ़िल्म थी तानाजी उसमें भी अजय देवगन का प्रोडक्शन था तो उन्होंने भी इनपुट दिया ही होगा। लेकिन मनोज मुंतशिर खुद कह रहे हैं कि उन्होंने जान बूझकर ऐसे डायलॉग लिखे हैं। उनका तर्क ये है कि यही आम बोल चाल की भाषा है और बच्चे रामायण की कहानी से ऐसे कनेक्ट कर पाएँगे। हँसी आती है मुझे। मतलब ये आम के पेड़ पर जामुन उगाने वाली बात है। कहानी त्रेता युग की है और भाषा टपोरी छाप कलयुग की। ऐसे कैसे चलेगा? दोस्त यारों के मुँह से ऐसी भाषा निकलती है ना कि भगवान के मुँह से ।
मुझे लगता है कि फ़िल्म के राइटर और डायरेक्टर अति आत्मविश्वास  के शिकार थे और उसी का नतीजा है कि अभी तक उन्हें गलती का एहसास नहीं हो रहा है। होगा भी कैसे पैसा जो आ रहा है।
राम जी से इन्हें चुपचाप माफी माँगनी चाहिए। जनता तो माफ करने से रही।

©नीतिश तिवारी।

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